पिहले अंतरिक्ष के मम्मी-पापा जब दफ्तर जाते थे, तो वह दादी का हाथ पकड़े, कभी दूध पीते, तो कभी खेलते-खेलते उनको बाय-बाय कहता था। फिर कहता था, ‘सी यू इन द ईवनिंग।’ उसे ऐसा करते देख मम्मी-पापा के साथ दादी भी बहुत खुश होती थीं। लेकिन कई दिनों से अब जब भी मम्मी-पापा जाने को होते, वह जोर-जोर से रोने लगता। साथ जाने की जिद करता। उसकी नैनी उसे तरह-तरह के खिलौने दिखाती, दादी कहानी सुनाकर बहलाने की कोशिश करतीं, मगर वह न मानता।

इसलिए दादी ने अब नया तरीका निकाला था। मम्मी-पापा का जब जाने का वक्त होता, तो वह अंतरिक्ष को किसी बहाने से ऊपर ले जातीं। उसके साथ खेलतीं, उसे खाना खिलातीं। वहीं वह खेलते-खेलते सो जाता।

आज दादी ने अपनी दोनों हथेलियां आखों पर रखीं और अंतरिक्ष से कहा, ‘तू छिप जा। मैं तुझे ढूंढ़ती हूं।’ वह खिलखिलाता हुआ परदे के पीछे जाकर छिप गया। दादी को पता था कि वह कहां है, मगर वह उसे फौरन ढूंढ़ लेतीं, तो खेल लंबा कैसे चलता। वह उठीं और रसोई की तरफ गईं, ‘लगता है यहां छिपा है।’ वह बरतन और डिब्बों को हटाकर कहती जातीं, ‘अरे यह तो यहां नहीं है! तो फिर कहां गया! हो सकता है बाथरूम में छिप गया हो।’

‘अरे मगर यह तो बाथरूम में भी नहीं है। अरे अंतरिक्ष, कहां छिप गया? आज तो मैं तुङो ढूंढ़ ही नहीं पाऊंगी। कहीं बाहर तो नहीं भाग गया।’

परदे के पीछे छिपा अंतरिक्ष खूब खुश हो रहा था कि दादी उसे ढूंढ़ ही नहीं पा रही हैं। कभी-कभी हल्के से परदे के पीछे से दादी को देख भी लेता। उसकी नैनी डेल्सी भी खड़ी होकर यह तमाशा देख रही थी और मुस्कुरा रही थी। दादी ने आंखें मटकाकर और हाथ फैलाकर उससे पूछा, ‘क्या तुम्हें पता है अंतरिक्ष कहां छिपा है। कहीं चुपके से नीचे तो नहीं चला गया। मुङो तो आज वह कहीं मिल ही नहीं रहा।’ डेल्सी मुस्कुरा दी, बोली कुछ नहीं।

अंतरिक्ष को लगा कि वाकई दादी उसे ढूंढ़ नहीं पा रही हैं, तो वह चिल्लाया, ‘मैं यहां हूं, यहां हूं। ढूंढ़े।’

दादी ने नाटक करते हुए कहा, ‘डेल्सी तुमने सुनी क्या। कोई आवाज आई थी न! जैसे अंतरिक्ष बुला रहा हो। क्या यह उसी की आवाज थी। लेकिन कमरे के अंदर से तो नहीं आई थी। बाहर से आई थी। जरूर कोई दूसरा बच्चा अपने मम्मी-पापा या दादी को पुकार रहा है।’

‘नहीं आवाज तो अंतरिक्ष की ही थी।’ डेल्सी बोली।

‘अच्छा मगर वह है कहां। आज तो मैं कब से उसे खोज रही हूं। कहीं वह अपने खिलौनों वाले कमरे में तो नहीं है। पिंगू से पूछती हूं। उसे जरूर मालूम होगा। वही तो उसका सबसे प्यारा दोस्त है।’ पिंगू छोटा सा पेंग्विन खिलौना था। अंतरिक्ष हर जगह उसे अपने साथ ले जाता था।

दादी खिलौने वाले कमरे में पहुंचीं और अंतरिक्ष को सुनाते हुए कहने लगीं, ‘पिंगू-पिंगू। कहां हो तुम। अंतरिक्ष कहां छिपा है, मालूम है क्या? मगर पिंगू भी कहीं नजर नहीं आ रहा है। लगता है वह भी कहीं छिप गया है या मेरी तरह अंतरिक्ष को ढूंढ़ रहा है।’

परदे के पीछे छिपा अंतरिक्ष खूब हंस रहा था। उसे याद भी नहीं था कि मम्मी-पापा ऑफिस चले गए होंगे।

अब दादी धीरे-धीरे उधर बढ़ीं, जहां वह छिपा था। उन्होंने परदे को हटाया और जोर से बोलीं, ‘अरे मिल गया। मिल गया। यह तो यहां छिपा था। मुझे पता भी नहीं चला। पकड़ा गया। मैं वैसे ही सब जगह इसे ढूंढ़-ढूंढ़कर परेशान हो रही थी।’

‘चलो अब हो गया नाश्ते का वक्त। अब मैं, अंतरिक्ष और डेल्सी मिलकर नाश्ता करेंगे।’

लेकिन अंतरिक्ष दौड़कर अपने खिलौनों के कमरे में गया। मगर पिंगू तो सामने ही रखा था। फिर दादी क्यों कह रही थीं कि उन्हें पिंगू भी नहीं मिल रहा है। वह लौटा और दादी को पिंगू दिखाने लगा। दादी उसकी बात समझकर मुस्कुराने लगीं, ‘अरे लो, अंतरिक्ष मिल गया, तो पिंगू भी मिल गया। जरूर दोनों सलाह करके छिपे होंगे कि मुझे कोई नहीं मिलेगा।’ दादी की बात सुनकर अंतरिक्ष ने पिंगू का पंख खींचा, ‘तू क्यों नहीं मिल रहा था। चलो हमारे साथ तुम भी नाश्ता करो।’ और अंतरिक्ष दादी के हाथ से खाने लगा। नींद से उसकी आंखें मुंदी जा रही थीं। दादी कह रही थीं, ‘ऐसे नहीं पहले खा लो। फिर सब मिलकर सोएंगे।’ ‘पिंगू भी’, अंतरिक्ष ने पूछा।‘हां, उसे तो तू अपने पास ही सुला लेना।’

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